आज बात- #कोरैण‘ की। #कोरैण माने कोरने वाला। लुप्त होने के लिए ‘ढिका’ (किनारे) में बैठा यह औजार कभी भी लुढ़क सकता है। फिर हम शायद ही इसे देख पाएं। उन दिनों पहाड़ में हर घर की जरूरत थी -कोरैण। अब तो इसके कई स्थानापन आ गए हैं। कोरैण भी धीरे-धीरे पहाड़ के उन घरों की तरह पुरानी हो गयी है जो आधुनिकता की भेंट चढ़े। आधुनिकता और आराम ने कई पुरानी चीजों को ढहाया और ले आया नये व आसान विकल्प।लकड़ी के हत्थे और लोहे की पत्ती से बनी कोरैण अलग-अलग आकार की होती थी। इसका आगे का हिस्सा मुड़ा होता था। उस मुड़े हुए हिस्से के ‘कर्व’ से तय होता था कि यह पतली वाली #कोरैण है या मोटी वाली। लोगों द्वारा अलग-अलग चीजों को कोरने के लिए अलग-अलग कोरैण का इस्तेमाल किया जाता था। हमारे घर में चार- पाँच तरह की कोरैण रखी रहती थीं। ‘काकड़’ (ककड़ी) कोरने वाली अलग थी, लॉकी कोरने वाली अलग, भुज कोरने वाली अलग थी। इस तरह हर किसी के हिसाब से अलग-अलग कोरैण।ईजा कोरैण को बड़ा संभाल कर रखती थीं। उसे रखने की जगह ‘डावपन” (छत पर लगी लकड़ियों की बल्लियों के बीच की जगह) होती थी। ईजा वहीं सब को रख देती थीं ताकि जरूरत पड़ने पर भटकना न पड़े, एकदम से मिल जाए। हम से भी कहती थीं-“कोरी बे डाव पन धर दिये हां”(कोरने के बाद छत पर वहीं रख देना)। हम भी वहीं रख देते थे। कभी इधर-उधर रख देते थे तो ईजा फटकार लगाती थीं- “जति बे निकालो वेति नि रख सकनें” (जहाँ से निकाला वहां नहीं रख सकता है)। ईजा की बात सुनते ही हम फटाफट जाकर नियत स्थान पर रख आते थे।#कोरैण का ज्यादा उपयोग काकड़, लौकी, भुज ( पैठा) कोरने के लिए करते थे। जब भी ककड़ी का रायता बनाना होता था तो ईजा कहती थीं – “ले य काकड़ कोर दे” (ये ककड़ी कोर दे)। हम ईजा को कहते थे ‘डाव से कोरैण’ निकाल दे। ईजा निकाल कर हमें दे देती थीं। हम बड़े इत्मिनान से ककड़ी कोरने लग जाते थे। ककड़ी का एक-एक रेशा निकाल देते थे। ककड़ी का छिलका साफ दिखाई देने लगता था । इससे कोरने में छिलका टूटता भी नहीं था। बाद में उसी में, हम ककड़ी का रायता खाते थे, ये हमारी #इकोफ्रेंडली प्लेट बन जाती थी। ईजा ककड़ी के रायते के लिए राई, हरी मिर्च, लहसुन वाला लूण पीसती थीं। क्या चटपटा लूण होता था! ईजा ककड़ी, लूण और दही को मिलाकर क्या ‘फर्स्टक्लास’ (जायकेदार) रायता बनाती थीं। रायते के साथ हम उंगलियां भी चाटते रह जाते थे।भुज, ईजा ‘बड़ी’ बनाने के लिए कोरती थीं। अक्सर रात में एक-एक कोरैण लेकर हम भुज कोरने के लिए बैठ जाते थे। ईजा हमारे आगे भुज रखते हुए कहती थीं- “च्यला कोर ढैय् इनुकें” (बेटा इनको कोर दे)। हम एक-एक करके उनको रात में कोरते थे। फिर सुबह ईजा ‘मास’ (उडद) की पिसी हुई दाल मिलाकर उनकी ‘बड़ी पाड़’ (बना) देती थीं।बहुत सी चीजों की तरह अब कोरैण भी खत्म हो रही है। ईजा को आज भी कोरैण से कोरा हुआ रायता ही अच्छा लगता है। वह अब भी उसी पर निर्भर हैं। ईजा कोरैण पर तो #कोरैण ईजा पर निर्भर है। पहाड़ में जहाँ बहुत कुछ खत्म हो चुका है, वहाँ ईजा अपने हिस्से का पहाड़ तो बचा ही रही हैं। ईजा के हिस्से का पहाड़, बस हमारे किस्सों में है। ईजा उसको पूरी जिजीविषा के साथ जी रही हैं और आबाद कर रही हैं। देखो कब तक कोरैण बची रहती है।
